हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवादआनन्दसूचक बाजे बजने लगे। सब लोग श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। मथुरापुरी की गलियां और सड़कें ध्वजा-पताकाओं से अलंकृत हो सब ओर से सुशोभित होने लगीं। गोविन्द के आगमन से इन्द्रोत्सव के समान सारे नगर और अन्त:पुर में अत्यंत हर्ष एवं आनन्द छा गया। उसकी शोभा बढ़ गयी। राजमार्गों पर बहुतेरे गायक आनन्दित होकर गीत गाने लगे। उस समय यादवों को प्रिय लगने वाली यह गाथा वहाँ सब ओर कही-सुनी जाने लगी- ‘नागरिकों! विश्वविख्यात वीर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई मथुरा आ पहुँचे हैं। अब तुम सब लोग निर्भय हो अपने नगर में बन्धु-बान्धवों के साथ क्रीड़ा करो।' राजन! गोविन्द के मथुरा में उपस्थित होने पर वहाँ न तो कोई दीन था, न मलिन था और न चेतना से शून्य ही था। पक्षी मीठी-मीठी बोली बोलते थे। गाय, बैल, घोड़े, हाथी हष्ट-पुष्ट रहते थे और पुरुषों तथा स्त्रियों के सभी समुदाय मन में सुख का अनुभव करते थे। शीतल सुखद हवा चलती थी। दसों दिशाओं में धूल नहीं उड़ती थी और सभी मन्दिरों में हर्षपूर्वक देवता निवास करते थे। भगवान श्रीकृष्ण के मथुरापुरी को लौट आने पर वहाँ सारे चिह्न वैसे ही दिखायी देने लगे, जो सत्ययुग के समय पहले जगत में प्रकट होते थे। तदनन्तर मंगलमयी पुण्य वेला में शत्रुमर्दन भगवान गोविन्द ने घोड़े जुते हुए रथ पर बैठकर मथुरापुरी में प्रवेश किया। रमणीय मथुरापुरी में प्रवेश करते समय समस्त यादव उन शत्रुदमन उपेन्द्र श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे उसी प्रकार चले, जैसे देवता देवेन्द्र का अनुसरण करते हैं। तदन्तर यदुकुल को आनन्दित करने वाले वे दोनों बन्धु वसुदेव के भवन में प्रविष्ट हुए। उस समय उनके मुख पर हर्षोल्लास छा रहा था और वे मेरु पर्वत पर जाने वाले चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रतीत होते थे। वे महान तेज से सम्पन्न तथा देवेश्वरों के समान मनोहर रूपधारी श्रीकृष्ण-बलराम आयुधों को अपने घर में रखकर उस पुरी में स्वेच्छानुसार विचरने लगे। वसुदेव के वे दोनों पुत्र यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण-बलराम फल और फूलों के भार से झुके हुए वृक्षों वाले विचित्र उद्यानों में सानन्द विचरते थे। यादवों से घिरे हुए वे दोनों महात्मा रैवतक पर्वत के समीपवर्ती प्रदेशों में तथा बढ़े हुए पद्य-पत्रों से युक्त एवं कारण्डेव पक्षियों के कलरवों से मुखरित निर्मल सरिताओं के तटों पर भ्रमण करते थे। वे दोनों भाई एक तत्त्वय के बने हुए थे। (एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा इन दोनों के रुपों में प्रकट हुए थे) उन दोनों के मुख बड़े ही सुन्दर एवं मंगलकारी थे। वे कुछ काल तक उग्रसेन का अनुसरण करते हुए मथुरा में बड़े सुख से रहे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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