हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 28 श्लोक 74-89

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टाविंश अध्याय: श्लोक 74-89 का हिन्दी अनुवाद

विद्याधर, किन्नर, रीछ, वानर, राक्षस, सिंह, व्‍याघ्र, वराह, भैंसे, शरभ, खरगोश, सृमर, (मृगविशेष), चमर (चवँरी गाय), न्यंकु (बारहसिंगा), हाथी, यक्ष, निशाचर तथा ऐसे ही नाना प्रकार की जाति के प्राणियों को देखता हुआ वह दानव उस उत्‍तम पर्वत पर भ्रमण कर रहा था। इसी समय उस दानवराज ने दूर से ही उग्रसेन की रानी को देखा, जो सखियों के साथ क्रीड़ा करती तथा फूल चुनती हुई देवकन्‍या के समान सुशोभित हो रही थी। सखियों से घिरी हुई उस सुन्‍दर कटिप्रदेश वाली रमणी को दूर से ही वहाँ विचरती देख सौभ विमान का स्‍वामी द्रुमिल चकित हो उठा और अपने विमान चालक से इस प्रकार बोला- सूत! इस वन के भीतर विचरने वाली यह मृगनयनी बाला किसकी स्‍त्री है, जो रूप और उदारता आदि गुणों से सम्‍पन्न होकर कामपत्नी रति के समान शोभा पा रही है। अहो! क्‍या यह देवराज इन्द्र की पत्‍नी शची है या तिलात्तमा है ‍अथवा जो भगवान नारायण के ऊरु का भेदन करके प्रकट हुई और पुरुरवा की प्‍यारी महारानी बनी थी, वह सुन्‍दर कान्‍तिवाली रमणी रत्न उर्वशी है?

हमने सुना है– देवताओं ने असुरों के साथ मिलकर अमृत की प्राप्‍ति के लिये मन्‍दराचल को मथानी बनाकर जब क्षीर सागर का मन्‍थन किया था, उस समय उसके अमृतमय दुग्ध से लोक भाविनी लक्ष्‍मी देवी का प्रादुर्भाव हुआ था, जो भगवान नारायण के अंग में सुशोभित होती हैं, यह सुन्‍दरी अंगना वही लक्ष्मी देवी तो नहीं है। जैसे थोड़ी-थोड़ी देर में चमकने वाली बिजली नील मेघ के भीतर रहकर अपना प्रकाश फैलाती है, उसी प्रकार यह स्‍त्रियों के बीच में रहकर अपने रुप और वन को प्रकाशित करती हुई यहाँ विचर रही है। अंग बड़े ही सुकुमार हैं, मुख चन्‍द्रमा के समान सुन्‍दर कान्‍ति से उद्भासित हो रहा है। इस निर्दोष अंगों वाली रमणी का रुप देखकर मैं पागल हो गया हूँ। मेरी सारी इन्‍द्रियाँ व्‍याकुल हो उठी हैं। मैं काम के अधीन हो गया हूँ। मेरा मन विह्वल–सा हो रहा है। पुष्‍पधन्वा कामदेव अपने सायकों से मेरे अंगों को बड़े वेग से छिन्‍न-भिन्‍न कर रहा है। मेरे हृदय में अपने पाँचों बाणों का प्रहार करके वह बड़ी निर्दयता के साथ उसे विदीर्ण कर रहा है। मेरे हृदय के ‍भीतर कामाग्नि बढ़ रही है। वह घी की आहुति पाकर बढ़ी हुई आग के समान प्रज्‍वलित हो उठी है। इस कामाग्नि से शान्‍ति पाने के लिये इस समय कैसे कौन-सा यत्न किया जाय?

अहो! किस उपाय से हम क्‍या करें,जिससे यह मतवाली चाल से चलने वाली रमणी मुझे अंगीकार कर ले। इस प्रकार बहुत सोचने पर भी जब कोई उपाय नहीं सूझा, तब रस दानव ने अपने सारथि से कहा- अनघ! तुम दो घड़ी यहीं ठहरो, मैं स्‍वयं ही उसे देखने तथा यह किसकी स्‍त्री है, इस बात का पता लगाने के लिये जाता हूँ। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, तब तक तुम यहीं मेरी प्रतीक्षा करते हुए खडे़ रहो। द्रुमिल की यह बात सुनकर उसके सारथि ने कहा, ‘बहुत अच्‍छा! ऐसा ही होगा’। सारथि से उपर्युक्‍त बात कहकर बलवान दानवराज द्रुमिल ने उसके पास जाने का विचार किया। फिर उसने जल से उसके पास जाने का विचार किया। फिर उसने जल से आचमन किया और ध्‍यान लगाकर उसके विषय में चिन्‍तन करने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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