हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 54-73 का हिन्दी अनुवादये उग्रसेन तुम्हारे पिता नहीं हैं। सौभ विमान का स्वामी ओज और तेज से सम्पन्न महाबली द्रुमिल तुम्हारा पिता है। नारद जी की यह बात सुनकर मुझे कुछ रोष आ गया। मैंने पुन: पूछा- ब्रह्मन! द्रुमिल नामक दानव किस तरह मेरा पिता हुआ? तपोधन विप्र! बताइये, मेरी माता के साथ उसका समागम कैसे हुआ? मैं यह सब विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। नारद जी ने कहा– राजन! बहुत अच्छा, द्रुमिल का तुम्हारी माता के साथ जो संवाद और समागम हुआ था, वह सब मैं तुम्हें यथार्थ रुप से बता रहा हूँ, सुनो। एक समय की बात है, तुम्हारी माता जब रजस्वला (होने पश्चात स्नान कर चुकी) थी, कौतूहलवश दूसरी स्त्रियों के साथ सुयामुन नामक पर्वत का दर्शन करने के लिये गयी। वह वहाँ पर्वत के रमणीय शिखरों पर, जो मनोहर वृक्षों से सुशोभित थे, विचरने लगी। उसने वहाँ की कन्दराओं में तथा नदियों के तटों पर भी भ्रमण किया। वहाँ उसे कानों को सुख देने वाली कुछ ऐसी बातें किन्नरों के गाये हुए गीतों के रुप में उपलब्ध होने के कारण बड़ी मधुर प्रतीत होती थीं और प्रतिध्वनि से सब ओर गूँजती रहती थीं। मयूरों की मधुर केकाध्वनि तथा विहंगमों के कलरवों को निरन्तर सुनती हुई तुम्हारी माता के मन में स्त्रीधर्म (पुरुषसहवास) की रुचि जाग्रत हो उठी। इसी बीच में वन श्रेणियों से निकलकर फूलों की सुगन्ध से भरी हुई मनोरम वायु चलने लगी, जो कामभाव को जगाने वाली थी। खिले हुए कदम्बों पर भ्रमर छाये हुए थे, जो उनके आभूषण से जान पड़ते थे। वायु के झोंके खाकर और निरन्तर गिरती हुई जल धाराओं से मूर्च्छित-से होकर वे कदम्ब अधिकाधिक गन्ध छोड़ने लगे। मदनोन्माद को जगाने वाले नागकेसर अपने फूलों की वर्षा कर रहे थे। पुष्पमय कण्टक धारण करने वाले नीप दीप के समान प्रकाशित हो रहे थे। नयी-नयी घासों से ढकी और बीरबहूटी से विभूषित हुई वसुधा नवयुवती नारी के समान मानों रजस्वला रूप धारण किये हुए थी। ऐसे समय में सौभ विमान का अधिपति द्रुमिल नामक दीप्तिमान दानव भावी दैवायेग से विधाता द्वारा प्रेरित होकर वहाँ आ पहुँचा। इच्छानुसार चलने वाला उसका विमान प्रभातकाल के सूर्य की भाँति तेज: पुंज से प्रकाशित हो रहा था। उसके द्वारा वह वहाँ सुयामुन पर्वत की शोभा देखने की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक सहसा आ गया। मन से भी तीव्र गति वाले उस विमान द्वारा आकाश मार्ग से इच्छानुसार चलने वाला वह दानव पर्वतराज सुयामुन पर आकर उस श्रेष्ठ रथ से नीचे उतरा। शत्रुओं के रथ को तोड़ डालने वाले उस रथ (विमान) को उस पर्वत के उपवन में खड़ा करके वह विमान चालक के साथ पर्वत-शिखर पर विचरण करने लगा। उन दोनों ने वहाँ बहुत-से वन और कानन देखे। वहाँ की वनस्थली नन्दन वन के समान सभी ऋतुओं के गुणों से सम्पन्न थी। वे दोनों उस पर्वत के शिखरों पर, कन्दराओं में और नदियों के किनारे-किनारे घूमने लगे। उस पर्वत के बहुत-से ऊँचे-ऊँचे शिखर नाना प्रकार की धातुओं से आवृत थे। भाँति-भाँति के रत्नों से उनकी विचित्र शोभा हो रही थी। उन दोनों ने देखा, पर्वत के विभिन्न शिखर सुवर्णमय, रजतमय तथा अंजनमय दिखायी दे रहे हैं। नाना प्रकार के फूलों की सुगन्ध वहाँ व्याप्त हो रही हैं। भाँति-भाँति के जीव-जन्तुओं के समुदाय वहाँ निवास करते हैं। अनेक प्रकार के पक्षी अपने कलरवों से उन शिखरों को कोलाहलपूर्ण कर रहे हैं। भाँति-भाँति के पुष्प और फलों से सम्पन्न वृक्ष वहाँ लहलहा रहे हैं। नाना प्रकार की औषधियों से संयुक्त उन शिखरों पर ऋषि और सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज