हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 121 श्लोक 122-135

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 122-135 का हिन्दी अनुवाद

सुग्रीव को राज्य प्रदान करने वाले भी आप ही हैं। आपने ही (वामनरूप धारण करके) बलि के राज्य का अपहरण किया है। आप कौस्तुभ और लक्ष्मी नामक रत्नों को ग्रहण करने वाले हैं। आप ही समुद्र के गर्भ से उत्पन्न धन्वन्तरि नामक महारत्न हैं। आप ही वरुण नाम से विख्यात हैं। आप ही सरिताओं की उत्पत्ति के स्थान मेरु हैं। आप नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले, धन्वी एवं धनुर्धरों में श्रेष्ठ महान वीर हैं। आप दाशार्ह नाम से विख्यात हैं। आपका धनुष विशाल है। आप धनुष के प्रेमी हैं। उत्तम व्रतधारी श्रीकृष्‍ण! आप ही गोविन्द नाम से प्रसिद्ध तथा आप ही समुद्र हैं। आप आकाश और तप हैं। आप ही समुद्र का मन्थन करने वाले हैं। अनेक फलों से युक्त स्वर्ग आपका ही स्वरूप है। आप ही स्वर्ग में विचरने वाले महान पुरुष हैं। आप ही महान मेघ हैं। आप से ही बीजों की सिद्धि होती है। आप ही क्रोध आदि के रूप से तीनों लोकों को मथते रहते हैं। आप क्रोध, लोभ और मनोरथ रूप हैं। आप महान परमेश्वर ही कामनाओं के दाता तथा समस्त धनुषों को धरण करने में समर्थ कामदेव हैं। आप ही संहारक और उत्पादक हैं तथा आप ही प्रलय एवं रक्षा के स्थान हैं।

महादेव! आप ही सब रूपों के ज्ञाता हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) हैं। आप ही रूपवान मधुसूदन (विष्णु) हैं तथा आप ही असंख्य गुणों से सम्पन्न ईश्वर (शिव) हैं। यदुवर! देव! आप स्वयं ही स्तुति के योग्‍य हैं तो भी मेरी स्तुति करना चाहते हैं (यह कितने आश्चर्य की बात है)। जिन घोर प्राणियों को आपने रोषपूर्ण दृष्टि से देखा है, वे यमदण्ड से मारे गये हैं तथा पशु-पक्षियों को आपने बड़े प्यार से देखा है, वे सब इहलोक में हों या परलोक में सर्वथा स्वर्गलोक में ही जाने के अधिकारी हैं। महाबाहो! यह मैं आपकी आज्ञा के अधीन होकर सब प्रकार से आपके शासन में स्थित हूँ। तदनन्तर गरुड़ ने जयस्थान (प्रस्थान की मुद्रा) बनाकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘महाबली वीर! यह मैं आपकी सेवा में खड़ा हूँ। आप मेरी पीठ पर आरूढ़ होइये।’ यह सुनकर माधव ने गरुड़ को कण्ठ से लगाकर कहा- ‘सखे! शत्रुओं के विनाश के लिये यह अर्घ्य ग्रहण करो।’ इस प्रकार परम प्रसन्नतापूर्वक अर्घ्य देकर शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले महाबाहु पुरुषोत्तम श्रीहरि गरुड़ पर आरूढ़ हुए। तत्पश्चात काले केशों वाले बलराम जी श्रीकृष्ण के पास आकर हर्षपूर्वक बैठ गये, विष्णुस्वरूप श्रीकृष्ण वर्ण से भी कृष्ण ही थे। उन्होंने अपने हाथों में उत्तम वलय (कड़े) धारण कर रखे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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