हरि हरि हँसत मेरौ माधैया।
देहरि चढ़त परत गिरि-गिरि, कर-पल्ल्व गहति जु मैया।
भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया।
जिनि चरननि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया।
जिहिं सरूप मोहे ब्रह्नादिक, रवि-ससि कोटि उगैया।
सूरदास तिन प्रभु चरननि की, बलि-बलि मैं बलि जैया।।131।।