सखिनि संग बृषभानुकिसोरी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
दूसरी गुरु मानलीला


सखिनि संग बृषभानुकिसोरी। चली न्हान प्रातहिं उठि गोरी।।
जाकै घर निसि बसे कन्हाई। ता घर ताहि बुलावन आई।।
ठाढ़ी भई द्वार पर जाई। कढ़े तहाँ तै कुँवर कन्हाई।।
औचक मिले न जानत कोऊ। रहे चकित इत उत तै दोऊ।।
फिरी सदन कौ तुरतहिं प्यारी। न्हान जान की सुरति बिसारी।।
भई बिकल तन रिस अति बाढी। रहि गई सखी निरखि सब ठाढ़ी।।
रहि गए ठाढ़े स्याम ठगे से। सकुचाने उर सोच पगे से।।
जब देखे हरि अति मुरझाए। तब सखियनि गहि भुज समुझाए।।
उलटि भई सब हरि की घाई। दै कै बाहँ तिया जहँ ल्याई।।
देखी स्याम आइ जहँ राधा। बैठी मान दृढ़ाइ अगाधा।।
रिसही कै रस मगन किसोरी। भई स्याम मति देखत थोरी।।
ठाढे चकित चित अकुलाही। मुख तै बचन कहे नहिं जाही।।
व्याकुल लखि नंदलाल कौ, सखियनि कियौ बिचार।
अब दोऊ जैसै मिलै, करियै सो उपचार।।
अति रिस नारि अचेत, को सुनिहै कासौ कहै।
इत ये धरत न चेत, परी रुठावन बानि इन।।

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