हरि-रस तौअब जाइ कहुँ लहियै।
गऐं सोच आऐं नहि आनँद, ऐसौ मारग गहियै।
कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा अनंदित, रहियै।
वाद-बिवाद, हर्ष-आतुरता, इतौ द्वंद जिय सहियै।
ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं कहियै।
अष्ट सिद्धि, नव निधि, सूरज प्रभु, पहुँचै जो कछु चहियै।।18।।
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