सखियनि सँग लै राधिका, निकसी ब्रज खोरी।
चली जमुन अस्नान कौ, प्रातहिं उठि गोरी।।
नंदसुवन जा गृह बसे, तिहि बोलत आई।
जाइ भई द्वारै खरी, तब कढे कन्हाई।।
औचट भेंट भई तहाँ, चकित भए दोऊ।
ये इत तै वै उतहि तै, नहिं जानत कोऊ।।
फिरी सदन कौ नागरी, सखि निरखति ठाढ़ी।
स्नान दान की सुधि गई, अति रिस तनु बाढ़ी।।
स्याम रहे मुरझाइ कै, ठगमूरी खाई।
ठाढ़े जहँ के तहँ रहे, सखियनि समुझाई।।
इतने ही के ह्वै गए, गहि बाहँ लिवाई।
'सूरज' प्रभु कौ लै तहाँ, राधा दिखराई।।2735।।