धारि पृथु-रूप हरि राज कीन्हौ -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल
पृथु-अवतार



घारि पृथु-रूप हरि राज कीन्हौ।
विष्नु की भक्ति परवर्त जग मैं करी, प्रजा कौं सुख सकल भाँति दीन्होै।
बेनु नृप भयौ बलवंत जब पृथी पर, रिषिन सौं कह्यौ जप-तप निवारौ।
मोहिं बिधि, विष्नु, सिव,इंद्र, रवि-ससि गनौ, नाम मम लेइ आहुतिनि डारौ।
जज्ञ मैं करत तब मेघ बरसत मही, बीज अंकुर तबै जमत सारौ।
होइ तिन क्रौध तब साप ताकौं दयौ, मारिकै ताहि जग-दुःख टारौ।
भयौ आराज जब , रिषिन तब मंत्र करि, बेनु की जाँघ कौ मथन कीन्हौ।
जाँघ के मथे तैं पुरुष परगट भयौ, स्याम तिहिं भील कौ राज दीन्हो।
बहुरि जव रिषिनि भुज दछिन कीन्ही मथन, लक्ष्मी सहित पृथु दरस दीन्हौ।
पहिरि सव आभरन, राज्य लागे करन, आनि सब प्रजा दंडवत कीन्हौ।
बहुरि बंदीजननि आइ अस्तुति करी, इंद्र अरु वरुन तुम तुल्य नाहीं।
कह्यौ नृप, बिनु पराक्रम न अस्तुति करौ, बिना किए मूढ़ सो हर्षि जाहीं।
करौ भगवान कौ जस गुनीजन सदा,जो जगत-सिंधु तैं पार तारै।
किऐं नर की स्तुती कौन कारज सरै, करै सो आपनौ जन्म हारै।
कह्यौ तिन, तिन्हैं हम मनुष जानत नहीं, जगतपति जगतहित देह धारयौ।
करौगे काज जो कियौ न काहू नृपति, कियैं जस जाइ हम दुःख सारौ।
बहुरि सब प्रजा मिलि आइ नृप सौं कह्यौ, बिना आजीविका मरत सारी।
नृप धनुष-बान धरि पृथी पर कोप कियौं, तिन गऊ रूप बिनती उचारी।
बेनु के राज मैं औषधी गिलि गई, होइहैं सकल किरपा तुम्हारी।
पर्वतनि जहाँ तहँ रोकि मोकौं लियौ, देहु करि कृपा इक दिसा टारी।
धनुष सौं टारि पर्वत किए एक दिसि, पृथी सम करि, प्रजा सब बसाई।
सुर-रिषिन नृपति पुनि पृथी दोहन करी, आपनी जीविका सबनि पाई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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