देखि सखी ब्रज तैं बन जात।
रोहिनि-सुत, जमुमति-सुत की छबि, गौर, स्याम हरि-हलघर-गात।।
नीलांबर पीतांबर आढे़, यह सोभा कछु कहीं न जात।
जुगल जलज, जुग तड़ित मनहुं मिलि, अरस-परस जोरत हैं नात।।
सीस मुकुट, मकराकृत कुंडल झलकत बिविध कपोलनि भाँति।
मनहु जलद-जुग-पास जुगल रबि, तापर इंद्र-धनुष की काँति।।
कटि कछनी, कर लकुट मनोहर, गो चारन चले मन अनुमानि।
ग्वाल सखा बिच श्री नँद-नंदन, बोलत बचन मधुर मुमुकानि।।
चितै रहीं ब्रज की जुवती सब, आपुस ही मैं करत बिचार।
गोधन-बृंद लिये सूरज-प्रभु, बृंदाबन गए करत बिहार।।1215।।