भक्त काज हरि जित कित सारे।
जज्ञ राजसू माहि आपु हरि, सब के पाउँ पखारे।।
अष्ट नायिका द्रुपदसुता की, करै तहाँ सेवकाई।
दुर्योधन यह रीति देखि कै, मन मैं रह्यौ खिस्याई।।
भक्त संग हरि लागे डोलत, भक्त बछल प्रभु भोरे।
सब बिधि काज करत भक्तनि के, गनत नहीं हम को रे।।
जीतै जीतत भक्त आपनै, हारै हार बिचारत।
'सूरदास' प्रभु रीति सदा यह, प्रन जुग जुग प्रतिपारत।। 4220।।