तब तू मारिबोई करति।
रिसनि आगै कहि जु आवति, अब लै भाँड़े भरति।।
रोस कै कर दाँवरी लै, फिरति घरघर धरति।
कठिन यह करी तब जो वोध्यौ, अब वृथा करि मरति।।
नृपति कस बुलाइ पठयौ, बहुत कै जिय डरति।
यह कछुक विपरीत मो मन, माँझ देखि जु परति।।
होनहारी होइ है सोइ, अब इहाँ कत अरति।
‘सूर’ तब किन फेरि राखे, पाइँ अब किहिं परति।। 3138।।