हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।
भारत जुद्ध होइ जब बीता। भयौ जुधिष्ठिर अति भयभीता।
गुरुकुल हत्या मोतैं भई। अब धौं कैसी करिहै दई।
करौं तपस्या, पाप निवारौं। राज-छत्र नाहीं सिर धारौं।
लोगनि तिहिं बहु बिधि समुझायौ। पै तिहिं मन संतोष न आयौ।
तब हरि कह्यौ टेक परिहरौ। भीष्म पितामह कहै सो करौ।
हरि पांडव रनभूमि सिधाए। भीषम देखि बहुत सुख पाए।
हरि कह्यौ, राज न करत धर्मसुत। कहत हते मैं भ्रात तात-जुत।
गुरु हत्या मोतैं ह्वै आई। कह्यौ सौ छूटै कौन उपाई ?
राजधर्म तब भीषम गयौ। दानापद पुनि मोक्ष सुनायौ।
पै नृप कौ संदेह न गयौ। तब भीषम नृप सौं यौं कह्यौं।
धर्मपुत्र तू देखि बिचार। कारन करनहार करतार।
नर के किऐं कछू नहिं होइ। करता हरता आपुहिं सोइ।
ताकौं सुमिरि राज तुम करौ। अहंकार चित तैं परिहरौ।
अहंकार किऐं लागत पाप। सूर स्याम मैटै संताप।।261।।