एक दिवस दानव प्रलंब कौं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग आसावरी
प्रलंब-वध



एक दिवस दानव प्रलंब कौं, लीन्हौ कंस बुलाइ।
कह्यौ जाइ मारी नँद-ढोटा, दैहौं बहुत बड़ाइ।
माया-बपु धरि गोप-पुत्र ह्वै, चलयौ सु ब्रज-समुहाइ।
बल-मोहन खेलत ग्वालनि सँग, देख्यौ तिनकौं आइ।
ग्वाल-रूप ह्वै मिल्यौ निसाचर, हलधर सैन बताई।
मनमोहन मन मैं मुसुक्याने, खेनत भलैं जनाई।।
द्वै बालक बैठारि सयाने, खेल रच्यौ ब्रज-खोरी।
और सखा सब जुरि-जुरि ठाढ़े, आप दनुज-सँग जोरी।
तबहिं प्रलंब बड़ी बपु धारयौ, लै गयौ पीठि चढ़ाइ।
उतरि परे हरि ता ऊपर तैं, कीन्हौ जुद्ध बनाइ।
और सखा सब रोवत धाए, आइ गए नरनारि।
धाए नंद जसोदा धाई, नित प्रति कहा गुहारि।।
ग्वाल-रूप इक खेलत हो सँग, लै गयौ काँधै डारि।
ना जानियै आहि धौं को वह, ग्वाल-रूप-त्रपु धारि।।
जसुमति तब अकुलाइ परी, धर तन की सुधि बिसराई।
नंद पुकारत आरत, ब्याकुल, टेरत फिरत कन्हाई।।
दैत्य सँहारि कृष्न तहँ आए, ब्रज-जन दिए जिवाइ।
दौरि नंद उर लाइ लए हरि, मिली जसोमिति माइ।
खेलत रह्यौ संग मिलि मेरैं, लै उड़ि गयौ अकास।
आपुन ही गिरि परयौ धरनि पर, मैं उबरयौ तिहिं पास।
उर डरात जिय बात कहत हरि, आए हैं उठि पास।
सूर स्याम जसुमति घर लै गई, ब्रज-जन-मनहि हुलास।।604।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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