मैया री, मोहिं माखन भावै।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै।
ब्रज-जुवती इक पाछैं, ठाढ़ी, सुनत स्याम की बात।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर देखौं माखन खात।
बैठे जाइ मथनियाँ कैं ढिग, मैं तब रहौं छपानी।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि मन की जानी।।264।।