हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।।
जनमेजय जब पायौ राज। एक बार निज सभा विराज।।
पिता बैर मन मैं सो बिचारि। बिप्रनि सौ यौ कह्यौ उचारि।।
मोकौ तुम अब यज्ञ करावहु। चच्छक कुटुम समेत जरावहु।।
बिप्रनि सेत कुली जब जारयौ। तब राजा तिन सौ उच्चारयौ।।
तच्छक कुल समेत तुम जारयौ। कह्यौ इंद्र निज सरन उबारयौ।।
नृप कह्यौ इंद्र सहित तिहि जारौ। बिप्रनि हूँ यह मतौ बिचारौ।।
आस्तीक तिहिं अवसर आयौ। राजा सौ यह बचन सुनायौ।।
कारन करन हार भगवान। तच्छक डसनहार मत जान।।
बिनु हरि आज्ञा डुलै न पाति। कौन सकै काकौ संतापि।।
हरि ज्यौ चाहै त्यौही होइ। नृप तामैं संदेह न कोइ।।
नृप कै मन यह निश्चै आयौ। यज्ञ छाँड़ि हरि पद चित लायौ।।
सूत सौनकनि कहि समुझायौ। 'सूरदास' त्यौही कहि गायौ।। 5 ।।