सुरपति कौं सँताप जब भयौ -सूरदास

सूरसागर

षष्ठ स्कन्ध

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राग बिलावल
सदाचार-शिक्षा (नहुष की कथा)



सुरपति कौ सँताप जब भयौ। सो सुरपुर भय तैं नहिं गयो।
नहुष नृपति पै रिषि सब आइ। कह्मों सुर-राज करौ तुम राइ।
नहुष इंद्र-राजहिं जब पायौ। इंद्रानी कौ देखि लुभायौ।
कह्मो इंद्रानी मो पै आवै। नृप सों ताकौ कहा बसावै।
सुरगुरु सौं यह बात सुनाई। अवघि करन तिति कहि समुझाई।
सची नृपति सौ यह कहि भाषी। नृप् सुनिकै हिदै हिरदै मै राखी।
सची अग्नि कौ तुरत पठायौ। सुरपति दसा देखि सा आयौ।
इंद्रानी सुनि व्याकुल भई। अवधि धरी ब्यतीत हैं गई।
तब तिन ऐसी बुद्धि उपाई। अंतद सो नहुष बुलाई।
कह्मौ तुम अस्वमेध नहिं किए। रिषि-आज्ञा ते सुरपति भए।
बिप्रनि पै चढि़ कै जौ आवहु। तौ तुम मेरौ दरसन पावहु।
नृपति रिषिनि पर है असवार। चल्यौ तुरंत सची कैं द्वार।
काम अंध कछु रहि न सँभारि। दुर्वासा रिषि कौं पग मारि।
सर्प-सर्प कह्मों बारंबार। तब रिषि दीन्हों ताकौं डार।
कह्मों सर्प तैं भाष्यौ मोहि। सर्प रूप तूही नृप होहि।
सबै साप रिषि सौ नृप पायौ ।तब रिषि -चरनन माथौ नायौ ।
इहि सराप सों मुक्ति ज्यौ होइ। रिषि कृपालु भाषौ अब सोइ।
कह्मो जुधिष्ठिर देखै जोइ। तब उधार नृप तेरौ होइ।
नृप ऐसे है परतिय-प्यार। मूरख करै सो बिना विचार।
ज्यौं सुक नृप् सौ कहि समुझायौ। सूरदास त्यौंही कहि गायौ।।7।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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