हरि सौ बूझति रुकमिनि इनमै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग कान्हरी


हरि सौ बूझति रुकमिनि इनमै को ब्रिषभानु किसोरी।
वारक हमैं दिखावहु अपने, बालापन की जोरी।।
जाकौ हेत निरंतर लीन्हे, डोलत व्रज की खोरी।
अति आतुर ह्वै गाइ दुहावन, जाते पर घर चोरी।।
रचते सेज स्वकर सुमननि की, नव पल्लव पुट तोरी।
बिन देखै ताके मन तरसै, छिन बीतै जुग कोरी।।
‘सूर’ सोच सुख करि भरि लोचन, अंतर प्रीति न थोरी।
सिथिल गात मुख वचन फुरत नहिं, ह्वै जु गई मति भोरी।। 4285।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः