स्रु तिनि हित हरि मच्छ रूप धारयौ -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मारू
मत्स्य अवतार



स्रु तिनि हित हरि मच्छ रूप धारयौ, सदा ही भक्त-संकट निवारयौ ।
चतुरमुख कह्यौ, संख असुर स्रुति लै गयौ, सत्यब्रत कह्यौ परलै दिखायौ।
भक्त-वत्सल, कृपाकरन, असरन-सरन, मत्स्य कौ रूप तब धारि आयौ।
स्नान करि अंजली जल जवै नृप लियौ, मत्स्य कौ देखि कह्यौडारि दीजै।
मत्स्य कह्यौ, मै गही आइ तुम्हारी सरन, करि कृपा मोहि अब राखि लीजै।
नृप सुनन वचन, चक्रित प्रथम ह्नै रह्यौ, कह्यौ, मछ वचन किहि भाँति भाष्यौं।
पुनि कमंडल धरयौ, तहाँसो बढ़ी गयो, कुंभ धरि बहरि पुनि माट राख्यौ ।
पुनि घरयौ खाड़ , तालाब मैं पुनि धरयौ, नदी मै बहुरि पुनि डारि दीन्हौ।
बहुरि जब बढ़ि गयौ, सिंधु तब लै गयौ, तहाँ हरि-रूप नृप कि़हिं चींन्हि लीन्हौ।
कहौ करि विनय तुम ब्रह्म जो अनंत हो, मत्स्य को रूप किहिं काज कीन्हौ।
वेद विधि चहत, तुम प्रलय देखन कहत, तुम दुहुँनि हेत अवतार लीन्हौ।
कवहुँ बाराह, नरसिंह कबहूँ भयौ कवहुँ मै गच्छ कौ रूप लीन्हौ।
कवहुँ भयौ राम, बसुदेव-सुत कबहुँ भयौ, और बहु रूप हित-भक्त कीन्हो।
सातवै दिवस दिखराइहौं प्रलय तोहिं, सत-रिषि नाव मै बैठि आवैं।
तोहि वैठारिहौं नाम मैं हाथ गहि, बहुरि हम ज्ञान तोहिं कहि सुनावै।
सर्प इक आइहै व्हुरि तुम्हरो निकट ताहि सो नाव मम सृग बाँधौ।
यहै कहि भए अँतरधान तब मत्स्य प्रभु, बहुरि नृप आपनौ कर्म साधौ।
सातवें दिवस आयौ निकट जलधि जब, नृप कहौ जब कहाँ नाव पावै।
आइ गइ नाव, तब रिषिन तासौ कह्यौ , आउ हम नृपति तुमकौ बचावै।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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