बिनु हरि भक्ति मुक्ति नहि होइ -सूरदास

सूरसागर

द्वादश स्कन्ध

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राग बिलावल
राजा परीक्षित हरि-पद-प्राप्ति




हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।।
बिनु हरि भक्ति मुक्ति नहि होइ। कोटि उपाइ करी किन कोइ।।
रहट धरी ज्यौ जग ब्योहार। उपजत बिनसत बारबार।।
उतपति प्रलय होति जा भाइ। कहौ सुनौ सो नृप चितलाइ।।
राजा प्रलय चतुर्विधि होइ। आवत जात चहूँ मैं लोइ।।
जुग परलय तौ तुमसौ कही। तीनि और कहिबे कौ रही।।
चतुर जुगौ बीते इकहत्तर। करै राज तब लगि मनवंतर।।
चौदह मनु ब्रह्मा दिन माहि। बीतत तासौ कल्प कहाहिं।।
राति होइ तब परलय होइ। निसि मरजादा दिन सम होइ।।
प्रात भऐं जब ब्रह्मा जागै। बहुरौ सृष्टि करन कौ लागै।।
दिन सौ तीन साठि जब जाहि। सो ब्रह्मा कौ वर्ष कहाहिं।।
वर्ष पचास परारध कहिए। प्रलय तीसरी या बिधि रहिए।।
बहुरौ ब्रह्मा सृष्टि उपावै। जब लौ परारध दूजौ आवै।।
सत संवत भए ब्रह्मा मरै। महा प्रलय तब हरि जू करै।।
माया माहिं नित्य लय पावै। माया हरि पद माहिं समावै।।

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