हरिरथ रतन जरयौ सु अनूप दिखावै।
जिहिं मग कान्ह गयौ तिहि मग तै आवै।।
तिहिं मग आवै, सखिनि, बुलावै देखौ आनि विचारी।
मुकुट कुँडल तन, पीत वसन कोउ, गोविंद की अनुहारी।।
वेई भूपन निरखन लागी तब लगि नेरै आए।
ऊधौ जिन जानी, मन कुम्हिलानी, कृष्न सँदेस पठाए।।
चलौ चलौ पूछै कछु बातै।
कहि कहि ऊधौ हरि कुसलातै।।
कहि कुसलातै साँची बातै आवन कह्यौ कि नाही।
कै गरबाने राजस बाने अब चित हम न सुहाही।।
ठाढी तन काँपै, हेरै छाकै, बार बार अकुलाही।
अब जिय कपट कछु जनि राखौ, पूछै सौहँ दिवाही।।
कहौ ऊधौ तुम क्यौ व्रज आए।
तब हँसि कह्यौ हम कृष्न पठाए।।
कृष्न पठाए हम व्रज आए कहत मनोहर बानी।
सुनौ सँदेसो तजौ अँदेसौ तुम हौ चतुर सयानी।।
गोप सखा जिय मै जनि राखौ, अविगत है अविनासी।
मोह न माया वैर न दाया, सब घट आपु निवासी।।