श्री गुपाल तुम कहौ सो होइ।
तुमही कर्ता तुमही हर्ता, तुम तै और न कोइ।।
अबलौ मैं तुमकौ नहि जान्यौ, पुत्र भाव करि मान्यौ।
तुम हौ देव सकल देवनि के, अब तुमकौ पहिचान्यौ।।
गुरु सुत आदि दिए तुम जैसै, कृपा करौ जदुराई।
मम सुतहू जे कंस सँहारे, ते प्रभु देहु जिवाई।।
मेरै जिय यह बड़ी लालसा, देखौ नैननि जोइ।
दूध पिवाइ हृदै सौ ल्यावौ, पाछै होइ सु होइ।।
यह सुनि हरि पाताल सिधारे, जहाँ हुते बलि राइ।
करि प्रनाम बैठारि सिंहासन, हित करि धोए पाँइ।।
तासौ कह्यो देवकी के सुत, षष्ठ कंस जे मारे।
नैकु मँगाइ देह ते हमकौं, है वे लोक तिहारे।।
तहँ तै आनि दिये हरि बालक, माता लाड लडाए।
‘सूरदास’ प्रभु दरस-परस करि, ते बैकुंठ सिधाये।। 4299।।