हरि कौ भजन करे जो कोइ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
सौभरि ऋषि की कथा


 
सुकदेव कह्यौ, सुनौ हो राव। जैसौ हैं हरि-भक्ति प्रभाव।
हरि कौ भजन करे जो कोइ। जग-सुख पाइ मुक्ति लहे सोइ।
सौभरि रिषि जमुना-तट गयौ। तहाँ मच्छ इक देखत भयौ।
सहित कुटुब सो क्रोड़ा करै। अति उत्साह हृदय मै धरै।
ताहि देखि रिषकै मन आई। गृह-आश्रम है अति सुखदाई।
तप तजि कै गृह-आस्रम करौं। कन्या एक नृपति को बरौ।
कह्यौ मानधाता सौ जाइ। पुत्री एक देहु मोहिं राइ।
नृप कह्यौ देखि बृद्ध रिषि-देह। हैं पचास पुत्री मम गेह।
अंतःपुर भीतर तुम जाहु। बरे तुम्हैं तिहि करौ बिबाहु।
तब रिषि मन मैं कियौ रूप अति सुंदर। गयौ तहाँ जहँ नृप कौ मंदिर।
सब कन्यनि सौभरि कौ बरयौ। रिषि विवाह सवहिनि सौ करयौ।
रिषि तिनकैं हित गेह बनाए। तिनकैं भीतर बाग लगाए।
भोग समग्री भरे भँडार। दासी-दास गनत नहिं पार।
रिषि नारिनि मिलि बहु सुख पाए। सहस पचास पुत्र उपजाए।
तिनकैं बहुत भई संतान। कहँ लगि तिनकौ करौ बखान।
बहुत काल या भाँति वितायौ। पै रिषि मन संतोष न आयौ।
कह्यौ विषय सौ तृप्ति न होइ। केतौ भोग करौ किन कोइ।
या विधि जब उपज्यौ बैराग। तब तप करि कीन्हौ तन-त्याग।
सब नारिनि सहगामिनि कियौ। हरि जू तिनकौ निज पद दियौ।
तातैं बुध हरि-सेवा करैं। हरि-चरननि नितही चित परैं।
सुक नृप सौ ज्यौं कहि समुझायौ। सूरदास त्यौंहो कहि गायौ।।8।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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