जमुन तट आइ अक्रूर न्हाए।
स्याम बलराम कौ रूप जल मैं निरखि, बहुरि रथ देखि अचरज पाए।।
किधौ यह बिंब प्रतिबिंब जल देखियत, किधौ निज रूप दोउ है सुहाए।
चकित ह्वै नीर मैं बहुरि बुड़की दई, सहित सुर सिद्ध तहँ दरस पाए।।
दोउ कर जोरि विनय बहु विधि करी, लियौ जल रूप तब हरि दुहाई।
निकसि कै नीर तै तीर आयौ बहुरि ताहि ढिग बोलि, बोले कन्हाई।।
गति तुम्हारी न जानै कोऊ तुम बिना, राखि प्रभु राखि मैं सरन आयौ।।
हरि कह्यौ चलौ मथुरापुरी देखियै, सहित अक्रूर पुनि तहाँ आए।
'सूर' प्रभु कियौ विश्राम निसि बसि तहाँ, बोधि अक्रूर निज गृह पठाए।।3033।।