चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम-वियोग।
जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहुँ, सोइ सायर सुख जोग।
जहाँ सनक-सिब हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास।
प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुबास।
जिहिं सर सुभग मुक्ति-मुक्ताफल, सुकृत-अमृत-रस पोजै।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम, इहाँ कहा रहि कोजै।
लछमी-सहित होति नित क्रीड़ा, सोभित सूरजदास।
अब न सुहात बिषय-रस-छीलर, वा समुद्र को आस।।337।।