हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारविंद उर धरौ।
हरि परीच्छितहि गर्भ मंझार। राखि लियौ निज कृपा अधार।
कहौं सो कथा, सुनौ चित लाइ। जो हरि भजै रहै सुख पाइ।
भारत जुद्ध बितत जब भयौ। दुरजोधन अकेल रहि गयौ।
अस्वत्थामा तापैं जाइ। ऐसी भाँति कह्यौ समुझाइ।
हमसौं तुमसौं बाल-मिताई। हमसौं कछु न भई मित्राई।
अब जो आज्ञा मोकौं होइ। छाँड़ि बिलंब करौं मैं सोइ।
राज गए का दुख नहिं कोइ। पांडव राज नहीं जो होइ।
उनके मुऐं हिऐं सुख होइ। जौ करि सकौ, करौ अब सोइ।
हरि सर्वज्ञ बात यह जानि। पांडु सुतनि सौं कहीं बखानि।
आज सरस्वति तट रहौ सोइ। पै यह बात न जानै कोइ।
पांडव हरि की आज्ञा पाइ। तजि गृह, रहे सरस्वति जाइ।
काहू सौं यह कहि न सुनाई। उहाँ जाइ सब रैनि बिताई।
अस्वत्थामा निसि तहँ आए। द्रौपदि सुत तहँ सोवत पाए।
उनके सिर लै गयौ उतारि। कहौ, पांडवनि आयौ मारि।
बिन देखैं ताकौं सुख भयौ। देखे तैं दूनौ दुख ठयौ।
ये बालक तैं बृथा संहारे। कहि, कुरुपति तजि प्रान सिधारे।