जान देहु गोपाल बुलाई।
उर की प्रीति प्रान कैं लालच, नाहिंन परति दुराई।।
राखो रोकि बाँधि दृढ़ बंधन, कैसे हूँ करि त्रास।
यह हठ अब कैसे छूटत हैं, जब लगि है उर स्वास।।
साँच कहौं मन बचन कर्म करि, अपने मन की बात।
तन तजि जाइ मिलौंगी हरि सौं, कत रोकत तहँ जात।।
अवसर गऐं बहुरि सुनि सूरज, कह कीजैगी देह।
बिछुरत हंस बिरह कैं सूलनि, झूठे सबै सनेह।।801।।