जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरौ लाल घुटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै।
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै।
कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै।
कब मेरौ अंचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै।
कब धौं तनक-तक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै।
कब हँसि बात कहैगौ मोसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै।
स्याम अकेले आँगन छाँडे़, आप गई कछु काज घरै।
इहिं अंतर अँधवाइ उठयौ इक, गरजत गगन सहित घहरै।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहि डरै।।76।।