नंद-नँदन बर गिरिवरधारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



नंद-नँदन बर गिरिवरधारी। देखत रीझी घोष-कुमारी।।
मोर मुकुट पीतांबर काछे। आवत देखे गाइनि पाछे।।
कोटि इंदु-छबि बदन बिराजै। निरखि अंग प्रति मन्मथ लाजै।।
स्रुति कुंडल छबि रबि नहिं तूलै। दसन-दमक दुति-दामिनी भूलै।।
नैन-कमल मग-सावक मोहै। सुक नासा पटतर कौं को है।।
अधर-बिंब-फल पटतर नाहीं। विद्रुम अरु बंधूक लजाहीं।।
देखत रीझि रहीं ब्रजनारी। देह गेह की सुरति बिसारी।।
यह मन मैं अनुमान कियौ तब। जप-तप-संजम नेम करैं अब।।
बार-बार सबिताहिं मनावैं। नंद-नँदन पति देहु सुनावै।।
नेम-धर्म-तप-साधन कीजै। सिव सौं माँगि कृष्न पति लीजै।।
बर्ष दिवस कौ नेम लेइ सब। रुद्रहिं सेवहु मन बच-क्रम अब।।
दृढ़ बिस्वास बरत कौं कीन्हौ। गौरी-पति-पूजन मन दीन्हौ।।
षट-दस-सहस जुरीं सुकुमारी। ब्रत साधति नीकैं तन गारी।।
प्रात उठैं जमुना-जल खोरैं। सीत उष्न कहुँ अंग न मोरैं।।
पति कैं हेत नेम तप साधैं। संकर सौं यह कहि अवराधैं।।
कमल-पत्र मालूर चढ़ावैं। नैन मूँदि यह ध्यान लगावैं।।
हमकौं पति दीजै गिरिधारी। बड़े देव तुम हौ त्रिपुरारी।।
और कछू नहिं तुमसौं माँगैं। कृष्न-हेत यह कहि पालागैं।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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