हरि-हरि-हरि सुमिरौ सब कोइ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


हरि-हरि-हरि सुमिरौ सब कोइ। बिनु हरि सुमिरन मुक्ति न होइ।।
श्रीशुक, व्यास कह्यो जा भाइ। सोइ अब कही सुनौ चित लाइ।।
सूरज ग्रहन पर्व हरि जान। कुरुक्षेत्र मे आए न्हान।।
तहँ ऋषि हरि दरसन हित गए। हरि आगे ह्वे कै सब लए।।
आसन दै पूजाविधि करी। हाथ-जोरि विनती उच्चरी।।
दरस तुम्हारे देवन दुरलभ। हमको भयौ सो अतिही सुरलभ।।
यो कहि पुनि लोगन समुझायो। जैसे वेद पुराननि गायो।।
हरिजन को पूजै हरि जान। ताकौ होइ तुरत कल्यान।।
सूर पूजा बहु विधि सौ कीजै। तीरथ जाइ दान बहु दीजै।।
यह सब किये होइ फल जोइ। सत-सग सो छिन मै होइ।।
यह सुनि कै ऋषि रहे लजाइ पुनि बोले हरि सौ या भाइ।।
तुम सबके गुरु सबके स्वामी। तुम सबहिनि के अंतरजामी।।
तुम्हैं वेद ब्रह्मन्य बखानत। तातै हमरी अस्तुति ठानत।।
हम सेवक तुम जगत अधार। नमो-नमो तुम्हें बारबार।।
तुम परब्रहम जगत करतार। नर-तनु धरयो हरन भृव-भार।।
सुर पूजा अरु तीर्थ बतावत। लोगनि की मति कौ भरमावत।।

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