हरि के रूप रेख नहिं राजा -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल



हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनारव्दि उर धरौ।।
हरि के रूप रेख नहिं राजा। अरु हरि सम दुत्यिा न बिराजा।।
अलख रूप कछु कह्यो न जाइ। देवनि कछु वेदोक्त बताइ।।
हरि ज कै हृदय यह आई। देउँ सबनि यह रूप दिखाई।।
तीन लोक हरि करि विस्तार। अपनी जोति कियो उजियार।।
जैसै कोऊ गृह सँवारि। दीपक बारि करै उजियार।।
त्यौ हरि जोति अपनी प्रगटाई। घट घट मैं सोई दरसाई।।
तीनिहु लोक सगुन तन जानौ। जोति सरूप आतमा मानौ।।
स्वासा तासु भए स्रुति चार। करै सो अस्तुति या परकार।।
नाथ तुम्हारी जोति अभास। करति सकल जग मैं परकास।।
थावर जगम जहँ लगि भए। जोति तुम्हारी चेतन किए।।
तुम सब ठोर सबनि ते न्यारे। को लखि सकै चरित्र तुम्हारे।।
स्वयं प्रकास तुम साक्षी सदा। जीव कर्म करि बधन बँधा।।
सर्वव्यापी तुम सब ठाहर। तुमहिं दूरि जानत नर बाहर।।
तुम प्रभु सबकै अंतरजामी। बिसरि रह्यौ जिव तुमकौ स्वामी।।
तुम्हरी माया जग उपजाया। जैसे कौ तैसे मग लाया।।
जुग परमान कियौ ब्यौहार। तुम्हरी लीला अगम अपार।।
अद्भुत सगुन चरित्र तुम्हारे। जे करि कै भू भार उतारे।।
तिनकौ समुझि सकत नहि कोइ। निरगुन रूप लखै क्यौ सोइ।।
नर तन भक्ति तुम्हारी होइ। ज्यौ तन मैं जिव आश्रय सोइ।।
भक्ति करै सो उतरै पार।मो नमो न तुम्है बारंबार।।
सुक जैसी विधि अस्तुति गाई। तैसै ही मैं कहि समुझाई।।
जो यह अस्तुति सुनै सुनावै। ‘सूर’ सु ज्ञान भक्ति को पावै।। 4300।।

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