क्यौं दासी-सुत कैं पग धारे।
भीषम-करन द्रोन-मंदिर तजि, मम गृह तजे मुरारे !
सुनियत हीन, दीन, बृषली-सुत, जाति-पाँति तैं न्यारे।
तिनकैं जाइ कियौ तुम भोजन, दु-कुल लाजनि मारे।
हरि जू कहयौ, सुनौ दुरजोधन, सत्य सुवचन हमारे।
सोइ निरधन, सोइ कृपन दीन हैं, जिन मम चरन बिसारे।
तुम साकट, वै भगत-भागवत, राग-द्वेष तैं न्यारे।
सूरदास प्रभु नंद-नँदन कहैं, हम ग्वालिनि-जुठिहारे।।242।।