हरि-गुन-कथा अपार -सूरदास

सूरसागर

तृतीय स्कन्ध

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राग धनाश्री
जय-विजय की कथा



हरि-गुन-कथा अपार, पार नहिं पाइयै।
हरि सुमिरत सुख होइ, सु हरि-गुन गाइयै।
ब्रह्म-पुत्र सनकादिक, गए बैकुंठ एक दिन।
द्वारपाल जय-विजय हुते, बरज्यौ तिनकौं तिन।
साप दियौ तब क्रौध ह्वैं असुर होहु संसार।
हरि दरसन कौं जात क्यौं रोक्यौ बिना बिचार?
हरि तिनसौं कह्यौ आइ, भली सिच्छा तुम दीनी।
बरज्यौ आवत तुम्ह, असुर-बुधि इन यह कीनी।
तिन्हैं कह्यौ, संसार मैं असुर होहु अब जाइ।
तीजे जनम बिरोध करि, मोकौं मिलिहौ आइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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