राजा सौं अर्जुन सिर नाइ। कह्यौ सुनौ बिनती महराइ।
बहुदिन भए, हरि-सुधि नहिं पार्इ। आज्ञा होइ तौ देखौं जाई।
यह कहि पारथ हरि पुर गए। सुन्यौ, सकल जादव छै भए।
अर्जुन सुनत नैन जल धार। पर्यौ घरनि पर खाइ पछार।
तब दारुक संदेस सुनायौ। कह्यौ, हरि जू जो गीता गायौ।
सो सुरुप हिरदै महँ आन। रहियौ करत सदा मम ध्यान।
तब अर्जुन मन धीरज धारि। चले संग लै जे नर-नारि।
तहँ भिल्लनि सों भई लराई। लूटे सब, बिन स्याम-सहाई।
अर्जुन बहुत दुखित तब भए। इहाँ अपसगुन होत नित भए।
रोवैं वृषभ, तुरग अरु नाग। स्यार द्यौस, निसि बोलैं काग।
कंपै भुव, वर्षा नहिं होई। भयौ सोच नृप-चित यह जोइ।
इहि अंतर अर्जुन फिरि आयो। राजा कैं चरननि सिर नायौ।
राजा ताकौं कंठ लगाइ। कह्यौ, कुसल हैं जादवराइ ?
बल, बसुदेव, कुसल सब लोइ। अर्जुन यह सुनि दीन्हौं रोइ।
राजा कह्यौ, कहा भयौ तौहि। तू क्यौं कहि न सुनावैं मोहि।
काहू असतकार तोहिं कियौ। कै कहि दान न द्विज कौं दियौ।
कै सरनागत कौं नहिं राख्यौं। कै तुमसौं काहू कटु भाष्यौ।
कै हरि जू भए अंतर्धान। मोसौं कहि तू प्रगट बखान।
तब अर्जुन नैननि जल डारि। राजा सौं कह्यौ बचन उचारि।
सूरज-प्रभु बैकुंठ सिधारे। जिन हमरे सब काज सँवारे।।।286।।