प्रगट भए नंदनंदन आइ।
प्यारी निरखि बिरह अति ब्याकुल धर तैं लई उठाइ।।
उभय भुजा भरि अंकम दीन्हौ, राखी कंठ लगाइ।
प्रानहु तैं प्यारी तुम मेरैं, यह कहि दुख बिसराइ।।
हँसत भए अंतर हम तुम सौं, सहज खेल उपजाइ।
धरनी मुरझि परीं तुम काहैं, कहां गई चतुराइ।।
राधा सकुचि रही मन जान्यौ, करयौ न कछू सुनाइ।
सूरदास-प्रभु मिलि सुख दीन्यौ, दुख डारयौ बिसराइ।।1128।।