हरि जू की आरती बनी।
अति विचित्र रचना रचि राखी, परति न गिरा गनी।
कच्छप अघ आसन अनूप अति, डाँड़ी सहस फनी।
महो सराव, सप्त सगर घृत, वाती सैल धनी।
रवि-ससि-ज्योति जगत परिपूरन, हरति तिमिर रजनी।
उड़त फूल उड़गन नभ अंतर, अंजन घटा घनी।
नारदादि सनकादि प्रजापति, सूर-नर-असुर-अनी।
काल-कर्म-गुन-ओर-अंत नहिं, प्रभु इच्छा रचनी।
यह प्रताप दीपक सुनिरंतर लोक सकल भजनी।
सुरदास सब प्रगट ध्यान मैं अति विचित्र सजनी।।28।।
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