सुभट साल्व करि क्रोध हरि पुरी आयौ।
हत्यौ सिसुपाल को राजसू माहि हरि, धाइ धावन जबै यह सुनायौ।।
बृच्छ बन काटि महलात ढाहन लग्यौ, नगर के द्वार दीन्हे गिराई।
सर्प पाषान की बृष्टि करि लोक पर, वायु अति वेग सौ पुनि चलाई।।
प्रद्युम्न सात्यकि निकसि सन्मुख भए, बधु सारन सुनत बेगि धाए।
तहाँ चारुदेप्नहूँ साजि दल बल सकल, हाँकि रथ तुरग ता ठौर आए।।
तिमिर कौ बान तब साल्व मारयौ फटकि, प्रद्युम्न बान दीपति चलायौ।
मिट्यौ अंधकार तन बान बरषा करी, तुरँग रथ सारथी स्यौ गिरायौ।।
सैन के लोग पुनि बहुत घायल किए, ध्वजा घर घर परयौ मूरछाई।
साल्व यह देखि कै चकित सौ ह्वै रह्यौ, सस्त्र के गहन की सुधि भुलाई।।
असुर विद्या समर बहुरि लाग्यौ करन, कबहुँ लघु कबहुँ दीरघ सु होई।
गुप्त ह्वै कबहुँ कबहुँ परगट देखियै, कबहुँ घर कबहुँ नभ बसै सोई।।