पहिलै हौं ही हो तब एक।
अमल, अकल, अज, भेद-बिबर्जित सुनि बिधि बिमल विवेक।
सो हौं एक अनेक भाँति करि सोभित नाना भेष।
ता पाछैं इन गुननि गए तैं हौं रहिहौं अवसेष।
सत मिथ्या, मिथ्या सत लागत, मम माया सो जानि।
रवि, ससि, राहु सँजोग बिना ज्यौं, लीजतु है मन मानि।
ज्यौं गज फटिक मध्य न्यारौ बसि, पंच प्रपंच विभूत।
ऐसैं मैं सबहिनि तै न्यारौ, मनिनि ग्रथित ज्यौं सूत।
ज्यौं जल मसक जीव-धट अंतर, भम माया इमि जानि।
सोई जस सनकादिक गावत, नेति नेति कहि मानि।
प्रथम ज्ञान, विज्ञापन द्वितीय मत, तृतिय भक्ति कौ भाव।
सूरदास सोई समष्ठि करि, व्यष्टि छष्टि मम लाव।।38।।
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