हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलाबल
दत्तात्रेय-अवतार



हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि-चरनारविंद उर धरौ।
सुक हरि-चरननि कौं सिर नाइ। राजा सो बोल्यौ या भाइ।
कहौं हरि-कथा, सुनौं चितलाइ। सूर तरौ हरि गुन गाइ।।1।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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