प्रभु तुव मर्म समुझि नहिं परे -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग घनाश्री
नारदस्तुति


प्रभु तुव मर्म समुझि नहिं परे।
जग सिरजत पालत संहारत, पुनि क्यौ बहुरि करै।।
ज्यौ पानी मैं होत बुदबुदा, पुनि ता माहिं समाइ।
त्यौही सब जग प्रगटत तुम तै, पुनि तुम माहिं बिलाइ।।
माया जलधि अगाध महाप्रभु, तरि न सकै तिहिं कोइ।
नाम जहाज चढ़ै जो कोऊ, तुव पद पहुँचै सोइ।।
पापी नर लोहे जिमि प्रभु जू, नाही तासु निबाह।
काठ उतारत पार लोह ज्यौ, नाम तुम्हारौ ताह।।
पारस परसि होत ज्यौ कंचन, लोहपनौ मिटि जाइ।
त्यौ अज्ञानी ज्ञानहिं पावत, नाम तुम्हारौ गाइ।।
अमर होत ज्यौ ससय नासे, रहत सदा सुख पाइ।
यातै होत अधिक सुख भगतनि, चरनकमल चित लाइ।।
थावर जंगम सब तुम सुमिरत, सनक सनदन ताही।
ब्रह्मा सिव अस्तुति न सकै करि, मैं बपुरा केहि माही।।
जोग ध्यान करि देखत जोगी, भक्त सदा मोहिं प्यारौ।
ब्रज बनिता भजियौ मोहि नारद, मैं तिन पार उतारौ।।
नारद ज्यौ हरि अस्तुति कीन्ही, सुक त्यौ कहि समुझाई।
‘सूरज’ प्रेम भक्ति की महिमा, श्रीपति श्रीमुख गाई।। 4302।।

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