देवहूति कह, भक्ति सो कथियै -सूरदास

सूरसागर

तृतीय स्कन्ध

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राग बिलावल
भक्ति-विषयक प्रश्नोत्तर



देवहूति कह, भक्ति सो कथियै। जातैं हरि पुर बासा लहियै।
अरु सो भक्ति कीजै किहिं भाइ। सोऊ मो कहँ देहु बताइ।
माता, भक्ति चारि परकार। सत, रज, तम, गुन, सुद्धा सार।
भक्ति एक, पुनि बहु विधि होइ। ज्यौं जल रँग-मिलि रंग सु होइ।
भक्ति सात्त्विकी, चाहत मुक्ति। रजोगुनी, घन-कटुंबऽनुरक्ति।
तमोगुनी, चाहै या भाइ। मम बैरी क्यौंहूँ मरि जाइ।
सुद्धा भक्ति मोहिं कौं चाहै। मुक्तिहुँ कौं सो नहिं अवगाहै।
मन-क्रम-बचन मम सेवा करै। मन तैं सब आसा परिहरै।
ऐसौ भक्त सदा मोहिं प्यारौ। इक छिन तातैं रहौं न न्यारौ।
ताकौ जो हित, मम हित सोइ। ता सम मेरैं और न कोइ।
त्रिविध भक्त मेरे हैं जोइ। जो माँगै तिहिं देउँ मैं सोइ।
भक्त अनन्य कछू नहिं माँगै। तातैं मोहिं सकुच अति लागै।
ऐसौ भक्त सु ज्ञानी होइ। ताके सत्रुं - मित्र नहिं कोइ।
हरि-माया सब जग संतापै। ताकौं माया-मोह न ब्यापै।
कपिल, कही हरि कौ निज रूप। अरु पुनि माया कौन स्वरूप?
देवहूति जब या बिधि कह्यौ। कपिलदेव सुनि अति सुख लह्यौ।
कह्यौ, हरि कैं भय रवि-ससि फिरै। बायु वेग अतिसै नहिं करै।
अगिनि दहै जाके भय नाहिं। सो हरि माया जा बस माहिं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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