तेऊ चाहत कृपा तुम्हारी।
जिनकै बस अनमिष अनेक गन, अनुचर आज्ञाकारी।।
महादेव वर दियौ असुर कौ, जब उन निज तनु जारयौ।
सिव कै सीस धरन लाग्यौ कर, सिव बैकुंठ सिधारयौ।।
बिप्ररूप हरि कह्यौ असुर सौ, यह बर सत्य न होइ।
सिर अपने पर धरौ असुर कर, भस्म होइ गयौ सोइ।।
सिव कैलास गए अस्तुति करि, आनँद उपज्यौ भारी।
'सूरदास' हरि कौ जस गायौ, श्रीभागवतऽनुसारी।। 4307।।
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