सुरपति गौतम-नारि निहारि -सूरदास

सूरसागर

षष्ठ स्कन्ध

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राग बिलावल
इन्द्र-अहिल्या -कथा



सुरपति गौतम नारि निहारि। आतुर ह्वै गयौ बिना विचारि।
काग-रूप करि रिषि गृह आयौ। अर्धनिसा तिहिं बोल सुनायौ।
गौतम लख्यो, प्रात है भयौ। न्हान काज सो सरिता गयौ।
तब सुरपति मनामाहि वियारी। पतिव्रता है गौतमनारी।
गौतक-रूप् बिना जौ जैयै। ताके साप अग्नि सौं तैयै।
गौतमन्रूप् घारि तहँ आयौ। मूच्छित भयौ अहिल्या पायै।
कह्मो अहिल्या , तू को आहि? बेगि इह्मँ तैं बाहिर जाति ।
इति इंतर गौतम मृह आयौ। इंद्र जानि यह वचन सुनायौ।
मूरख तैं परतिय मन भायौ। इंद्रानी तजिकै ह्माँ आयौ।
इक भग की तोहि इच्छा भई। सहस्र मै तोको दई।
इंद्र शरीर सहस भग पाइ। छप्यौ सो कमल-नाल मै जाइ।
काल बहुत ता ठौर बितायौ। सुरगुर रिषिनि सहित तहँ आयौ।
यज्ञ कराइ प्रयोग न्‍हबायो। तोहूँ पूरब तन नहिं पायो।
तब सब रिषिनि दई आसीस। भग तैं नेत्र करौ जगदीस।
भग अस्थान नेत्र तब भए। रिषि इंद्रहि लै सुरपुर गए।
परतिय-मोह इंद्र दुख पायौ। सो नृप मैं तोहि कहि समुझायौ।
परतिय-मोह करै जो कोइ। जीवत नरक परत है सोइ।
सुक नृप सौं ज्यौ कहि समुझायौ। सूरदास त्यौहीं कहि गायौ।।8।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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