जौ लौं सत सरूप नहिं सूझत -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

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राग नट
आत्‍मज्ञान




जौ लौं सत सरूप नहिं सूझत।
तौ लौं मृग नाभि बिसारे, फिरत सकल बन बूझत।
अपनौ मुख मसि-मलिन मंदमति, देखत दर्पन माहीं।
ता कालिमा मेटिबे कारन, पचत पखारत छाहीं।
तेल-तूल-पावक-पुट भरि धरि, बनै न बिना प्रकासत।
कहत बनाइ दीप की बतियाँ, कैंसैं धौं तम नासत।
सूरदास यह मति आए बिन, सब दिन गए अलेखे।
कहा जानै दिनकर की महिमा, अंध नैन बिन देखे !।।25।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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