जौ लौं सत सरूप नहिं सूझत।
तौ लौं मृग नाभि बिसारे, फिरत सकल बन बूझत।
अपनौ मुख मसि-मलिन मंदमति, देखत दर्पन माहीं।
ता कालिमा मेटिबे कारन, पचत पखारत छाहीं।
तेल-तूल-पावक-पुट भरि धरि, बनै न बिना प्रकासत।
कहत बनाइ दीप की बतियाँ, कैंसैं धौं तम नासत।
सूरदास यह मति आए बिन, सब दिन गए अलेखे।
कहा जानै दिनकर की महिमा, अंध नैन बिन देखे !।।25।।
इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें