बरनौं बाल-बेष मुरारि।
थकित जित-तित अमर मुनि-गन, नन्द-लाल निहारि।
केस सिर बिन बपन के चहुँ दिसा छिटके झारि।
सीस पर धरि जटा, मनु सिसु रूप कियौ त्रिपुरारि।
तिलक ललित ललाट केसरि-बिंदु सोभाकारि।
रोष-अरुन तृतीय लोचन, रह्यो जनु रिपु जारि।
कंठ कठुला नील मनि, अंभोज-माल सँवारि।
गरल ग्रीव, कपाल उर इहिं भाइ भए मदनारि।
कुटिल हरि-नख हिऐं हरि के हरषि निरखति नारि।
ईस जनु रजनीस राख्यौ भाल तैं जु उतारि।
सदन-रज तन स्याम सोभित, सुभग इहिं अनुहारि।
मनहुँ अंग-बिभूति राजित संभु सो मधुहारि।
त्रिदस-पति-पति असन कौं, अति जननि सौं करै आरि।
सूरदास बिरंचि जाकौं जपत निज मुख चारि।।169।।