ज्यौं भयौ रिषभदेव-अवतार -सूरदास

सूरसागर

पंचम स्कन्ध

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राग बिलावल
ऋषभदेव-अवतार



ज्यौं भयौ रिषभदेव-अवतार। कहौं, सुनौ सों अब चित धार।
सुक बरन्यौ जैसे परकार। सूर कहै ताही अनुसार।
ब्रह्मा स्वायंभुव मनु जायौ। तातै जन्म प्रियब्रत पायौ।
प्रियब्रत कैं अग्नीध्र सु भयौ। नाभि जन्म ताही तैं लयौ।
नाभि नृपति सुत-हित जग कियौ। जज्ञ-पुरुष तब दरसन दियौ।
बिप्रनि अस्तुति विविध सुनाई। पुनि कह्यौ सुनियौ त्रिभुवनराई।
तुम सम पुत्र नाभि कैं होइ। कह्यौ, मो सम जग और न कोइ।
मैं हरता करता संसार। मैं लैहों नृप-गृह अवतार।
रिषमदेव तब जनमे आइ। राजा के गृह बजी बधाइ।
बहुरौ रिषभ बड़े जब भए। नाभि राज दै बन कौं गए।
रिषभ-राज परजा सुख पायौ। जस ताकौ सब जग मैं छायौ।
इंद्र देखि, इरपा मन लायौ। करि कै क्रोध न जल बरसायौ।
रिषभदेव तबहीं यह जानी। कह्यौ, इंद्र यह कहा मन आनी?
निज बल जोग नीर बरसायौ। प्रजा लोग अतिहीं सुख पायौ।
रिषभ राज सब मन उतसाह। कियौ जयंती सौं पुनि ब्याह।
तासौं सुत निन्यानवै भए। भरतादिक सब हरि रँग रए।
तनमैं नव नव-खँड अधिकारी। नवजोगेस्वर ब्रह्म-बिचारी।
असी-इक कर्म विप्र कौ लियौं। रिषभ ज्ञान सबहीं कौं दियौं।
दृस्यमान विनास सब होइ। साच्छी व्यापक, नसै न सोइ।
ताही सौं तुम चित्त लगावहु। ताकौ सेइ परम गति पावहु।
ज्ञानी-संग ते उपजै ज्ञान। अज्ञानी-संग बढ़ै अज्ञान।
तातैं संत-संग नित करना। संत संग सेवौ हरि-चरना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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