कान्ह कुँवर कौ कनछेदन है, हाथ सोहारी भेली गुर की।
बिधि बिहँसत, हरि हँसत हेरि हरि, जसुमति की धुकधुकी सु उर की।
रोचन भरि लै देत सींक सौं, स्रवन-निकट अतिही चातुर की।
कंचन के द्वैदुर मँगाइ लिए, कहौं कहा छेदनि आतुर की।
लोचन भरि-भरि दोऊ माता, कनछेदन देखत जिय मुरकी।
रोवत देखि जननि अकुलानी, दियौ तुरत नौआ कौं घुरकी।
हँसत नंद, गोपी सब बिहँसी, झमकि चलीं सब भीतर ढुरकी।
सूरदास नंद करत बधाई, अति आनंद बाल ब्रज-पुर की।।180।।