राधे महरि सौं कहि चली -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट
राधा-गृह-गमन


राधे महरि सौं कहि चली।
आनि खेलत रहौ प्यारी, स्याम तुम हिलिमिली।
बोलि उठे गुपाल राधा, सकुच जिय कर कहति।
मैं बुलाऊँ नाहिं आवति, जननि कौं कत डरति।
माइ जसुदा देखि तोकौं, करति कितनौ छोह।
सुनत हरि की बात प्यारी, रही मुख-तन जोह।
हँसि चली वृषभानु-तनया, भई बहुत अबार।
सूर-प्रभु चित तैं टरत नहिं, गई घर कै द्वार।।707।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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