कुँवर तन स्याम मनुकाम है दूसरौ, सुपन मैं देखि ऊषा लुभाई।
चित्रलेखा सकल जगत के नृपनि की छिनक मैं मूर्ति तब लिखि दिखाई।।
निरखि जदुबस कौ रहस मन मैं भयौ, देखि अनिरुद्ध कौ मूरछाई।
जाइ द्वारावती सोवतै कुँवर कौ, चित्रलेखा तहाँ तुरत ल्याई।।
बान दरबान सौ सुनत आयौ तहाँ, धाइ अनिरुद्ध सौ जुद्ध माँड्यौ।
‘सूर’ प्रभु ठटी ज्यौ भयौ चाहै सु त्यौ, फाँसि करि कुँवर अनिरुद्ध बाध्यौ।। 4197।।