दीन बधु ब्रजनाथ कबै मुख देखिहौ।
कहि रुकमिनि मन माहँ सबै सुख लेखिहौ।।
गावहिं सब सहचरी कुँवरि तामस करि हेरयौ।
सब दिन सुख साथिनी आजु कैसे मुख फेरयौ।।
मेरै मन कछु और है तुम कछु गावति और।
प्रान तजौगी आपनौ, देखि असुर सिर मौर।।
तिहूँ लोक के धनी मनी तुमही कौ सोहै।
सत्य प्रकृति औ पुरुषहि समरथ सबही मोहै।।
पर पुरुषारथ काग हसिनी के घर आवै।
कामधेनु खर लेइ, काल अमृत उपजावै।।
कुटुँब बैर मेरे परे, बरनि बरै सिसुपाल।
करनि सिंह तुम्हरी धरी कैसै चपै सृगाल।।